रस क्या है? | हिंदी काव्यशास्त्र में रस की परिभाषा, भेद और उदाहरण | Ras की परिभाषा हिन्दी व्याकरण – Ras in Hindi
जब हम कोई कविता या साहित्यिक रचना पढ़ते हैं और हमारे मन में प्रेम, दुख, क्रोध या आनंद जैसे भाव उत्पन्न होते हैं — तो यही भाव रस कहलाता है। रस कविता की आत्मा होता है, जो पाठक के हृदय को छूता है। — जैसे खुशी, दुख, वीरता या घृणा — तो समझिए वहाँ रस है। रस कविता की आत्मा है। ये वो चीज़ है जो शब्दों को भावों से जोड़ती है।
रस की परिभाषा
भरतमुनि के अनुसार — “विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से जो आनंद उत्पन्न होता है, वही रस है।”
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भरतमुनि ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ में रस का उल्लेख किया।
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यह परिभाषा “रस निष्पत्ति” की संकल्पना को जन्म देती है।
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उदाहरण जोड़ें: जैसे रावण वध प्रसंग में विभाव (राम का उद्देश्य), अनुभाव (क्रोध), व्यभिचारी भाव (उत्साह) मिलकर वीर रस उत्पन्न करते हैं।
सरल शब्दों में: रस वह भावनात्मक अनुभव है जो पाठक या श्रोता को साहित्य से मिलता है।
रस की परिभाषा – प्रमुख विद्वानों के अनुसार (विस्तृत रूप में)
1. भरतमुनि (Bharatmuni)
परिभाषा:
“विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।”
(नाट्यशास्त्र)
व्याख्या:
भरतमुनि ने रस की परिकल्पना सबसे पहले की। उनके अनुसार रस की उत्पत्ति तीन मुख्य तत्वों —
विभाव (उद्दीपन), अनुभाव (भावों की अभिव्यक्ति), और व्यभिचारी भावों (सहायक भावों) — के संयोग से होती है।
यह रस नाटक के रंगमंच पर अधिकतम प्रभावशाली माना गया है, क्योंकि वहाँ दृश्य और श्रव्य दोनों साधन होते हैं।
विशेष बात:
भरतमुनि ने केवल 8 रसों का वर्णन किया था। शांत रस को उन्होंने नाटक के लिए उपयुक्त नहीं माना, पर बाद में इसे स्वीकार किया गया।
2. आचार्य मम्मट (Acharya Mammata)
परिभाषा:
“विभावादि संयोगात् स्थायिनां भावानां रसत्वं।”
(काव्यप्रकाश)
व्याख्या:
मम्मट के अनुसार, स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के साथ मिलकर पाठक या श्रोता के चित्त में आनंद उत्पन्न करता है, तभी वह रस कहलाता है।
यानी रस का जन्म पाठक के भीतर होता है, न कि केवल कविता या नाटक में।
3. आचार्य अभिनवगुप्त (Abhinavagupta)
परिभाषा (भावार्थ):
रस विषय नहीं, अपितु आत्मानुभव का विषय है। रस ‘आस्वाद्य’ होता है, केवल ‘वेद्य’ नहीं।
व्याख्या:
अभिनवगुप्त ने रस की संकल्पना को केवल कविता या मंच तक सीमित न रखकर पाठक की अंतर्मन की चेतना से जोड़ा।
उनके अनुसार रस वह है जिसे अनुभव किया जाए, केवल समझा न जाए।
रस का अनुभव आत्मा की आनंदमयी दशा में होता है, जब सहृदय पाठक स्वयं को कविता से जोड़ लेता है।
4. आचार्य विश्वनाथ (Acharya Vishwanatha – साहित्यदर्पण)
परिभाषा:
“विभावेन अनुभावेन व्यक्तः सञ्चारिणा तथा।
रसतामेति रत्यादिः स्थायिभावः सचेतसाम्॥”
व्याख्या:
विश्वनाथ जी ने विस्तार से समझाया कि स्थायी भाव (जैसे रति, करुणा, क्रोध आदि) जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के साथ एक सम्यक् संयोग में आता है, तब सहृदय (भावक) के हृदय में वह रस रूप में परिणत होता है।
यह रस ब्रह्मानंद सहोदर यानी ब्रह्मानंद के समान आनंददायक होता है।
5. आचार्य धनंजय (Acharya Dhananjay)
परिभाषा (भावार्थ):
विभाव, अनुभाव, सात्त्विक, स्थायी और व्यभिचारी भावों के संयोग से जो भाव पाठक में आनंद की स्थिति लाता है, वही रस है।
व्याख्या:
धनंजय ने रस के निर्माण में सात्त्विक भावों (जैसे कांपना, रोना, पसीना आना आदि शारीरिक प्रतिक्रियाएं) को भी शामिल किया।
उन्होंने रस को एक समग्र भावानुभूति माना है।
6. डॉ. विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक
परिभाषा:
“भावों के छंदात्मक समन्वय का नाम ही रस है।”
व्याख्या:
कविता में भावनाओं का लयबद्ध ढंग से सुंदर मिलन हो, तभी रस उत्पन्न होता है।
यह एक अधिक सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टिकोण है जो श्रोता/पाठक को सौंदर्य और भावना दोनों देता है।
7. आचार्य श्यामसुंदर दास
परिभाषा:
“स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के योग से आस्वादन करने योग्य हो जाता है, तब सहृदय प्रेक्षक के हृदय में रस रूप में उसका आस्वादन होता है।”
व्याख्या:
श्यामसुंदर दास ने रस की अनुभूति को एक आंतरिक स्वाद माना — जैसे कोई स्वादिष्ट चीज़ ज़ुबान से चखते हैं, वैसे ही कविता या नाटक हृदय को ‘चखने’ योग्य बनते हैं।
8. आचार्य रामचंद्र शुक्ल
परिभाषा:
“जिस भांति आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी भांति हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है।”
व्याख्या:
रामचंद्र शुक्ल जी ने रस को एक भावात्मक मुक्ति माना है।
जब पाठक या श्रोता सांसारिक विचारों से ऊपर उठकर केवल भाव में डूब जाता है, तब रस की अनुभूति होती है।
यह साहित्य की आध्यात्मिक व्याख्या मानी जाती है।
विद्वान | परिभाषा का सार |
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भरतमुनि | विभाव+अनुभाव+व्यभिचारी भाव = रस |
मम्मट | स्थायी भाव का संयोग रस बनाता है |
अभिनवगुप्त | रस आत्मा की चेतना का आनंद है |
विश्वनाथ | रस ब्रह्मानंद के समान आत्मानुभव है |
धनंजय | रस पाँच भावों के समन्वय से उत्पन्न |
श्यामसुंदर दास | रस भावों का आस्वाद है |
डॉ. विश्वम्भरनाथ | भावों के छंदात्मक समन्वय से रस |
रामचंद्र शुक्ल | रस हृदय की मुक्तावस्था है |
रस के अंग
- स्थायी भाव — जैसे करुणा, हर्ष, क्रोध आदि।
- विभाव — जो कारण बनते हैं (उदाहरण: किसी प्रियजन की मृत्यु → करुणा)
- अनुभाव — भावों के बाहरी संकेत (जैसे आंसू आना, थरथराना)
- व्यभिचारी भाव — सहायक भाव (उदाहरण: चिंता, उदासी, संताप)
रसों के प्रकार (9 मूल रस)
भारतीय काव्यशास्त्र में मुख्य रूप से नौ रस माने गए हैं:
रस | स्थायी भाव | उदाहरण |
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श्रृंगार रस | रति (प्रेम) | राधा-कृष्ण के प्रेम चित्रण में |
हास्य रस | हास | किसी मजेदार संवाद में |
करुण रस | शोक | सीता का राम से वियोग |
रौद्र रस | क्रोध | भगवान शिव का तांडव |
वीर रस | उत्साह | महाराणा प्रताप का युद्ध |
भयानक रस | भय | अंधेरी रात का वर्णन |
बीभत्स रस | घृणा | युद्ध के रक्त चित्रण |
अद्भुत रस | आश्चर्य | कोई चमत्कारी घटना |
शांत रस | निर्वेद (वैराग्य) | गोसाईं तुलसीदास की भक्ति रचनाएं |
रस की विशेषताएँ
- रस कविता को भावनात्मक गहराई देता है।
- ये पाठक को भावनाओं से जोड़ता है।
- हर रस का अपना रंग, प्रभाव और स्वाद होता है।
रस और पाठक का संबंध
रस पाठक के मन में अनुभव जगाता है, लेखक के भावों को पाठक तक पहुँचाने की कला रस के माध्यम से ही संभव होती है। एक ही कविता पढ़कर अलग-अलग लोगों को अलग रस महसूस हो सकता है। यही साहित्य की सुंदरता है।
रस से जुड़े जरूरी सवाल (परीक्षा के लिए)
- रस की परिभाषा और अंग क्या हैं?
- वीर रस का उदाहरण सहित वर्णन करें।
- श्रृंगार रस और करुण रस में अंतर लिखिए।
रस केवल काव्य का हिस्सा नहीं, बल्कि उसकी आत्मा है। जब शब्दों से भाव निकलते हैं और पाठक का मन भीग जाता है, तब समझिए आपने रस को महसूस किया है। परीक्षा में पूछे जाने वाले इस विषय को रटना नहीं, समझिए — तभी काम आएगा।